शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

दिल्ली, सपनों वाली दिल्ली

दिल्ली एक ऐसा बड़ा शहर है, जहाँ हर व्यक्ति आने के सपने देखता है। लेकिन सब नहीं आ पाते हैं। हमारे देश में जैसे विदेश घूम आए लोगों की एक अलग पहचान बन जाती है, ठीक उसी तरह ही दिल्ली,मुंबई जैसे बड़े शहरों से अगर कोई व्यक्ति घूम कर या फिर यूं कह सकते हैं कि रह कर जाता है, तो वो अपने आप को अलग समझने लगता है। की अजी हम तो शहर घूम कर आए हैं..!! उसकी एक अलग पहचान बन जाती है और लोग भी थोड़ा अलग नजर से देखने लगते हैं। ऐसा गांवों मे अक्सर होता है क्योंकि वहाँ पे कुछ एक ही होते हैं, जिन्होने शहर देखा है। वरना गाँव वालों की दुनियाँ तो बस अपने घर या आस-पास के गांवों-कस्बों तक ही सिमट कर रह जाती है। शहर तो उनके लिए सिर्फ सपना ही होता है, जिसे वो सिर्फ टेलीविज़न या फिर रेडियो पर ही देख सुन कर संतोष कर लेते हैं। 

मेरी भी कहानी कुछ ऐसी ही है। बचपन में कभी मैंने सोचा नहीं था की मैं कभी दिल्ली शहर भी जाऊँगी और मैं भी दिल्ली की एतिहासिक चीजें टेलीविज़न पर ही देख लिया करती थी। पर कहते है न की कभी-कभी सपने भी सच होते हैं वैसे मेरा भी सच हो गया और मेरी शादी दिल्ली में ही हुयी। जहाँ मैं मेरे परिवार और मेरे पति के साथ रहने लगी।

यहाँ आकर मेरा अनुभव, मेरी सोच से थोड़ा अलग रहा क्योंकि मैं यहाँ एक बेटी की तरह नहीं बल्कि एक बहू के रूप मे थी, जिसके लिए काफी पाबन्दियाँ होती है। वैसे मेरा परिवार तो इस मामले मे थोड़ा अलग है, जहाँ मुझे थोड़ी आज़ादी है। पर फिर भी कहते हैं न कि ससुराल मे बहू बेटी की तरह भले रहे पर वो ससुराल वालों के लिए बेटी नहीं होती है। और ये बात कहीं-न-कहीं दिख जाती है, जहाँ पर ससुराल में वो बहू ही साबित हो जाती है। ससुराल में एक बहू बेटी की तरह तब तक रह सकती है, जब तक वो बिना किसी सवाल-जवाब के ससुराल वालों की हाँ में हाँ मिलाए। उनके मन से चले बिना किसी गलती के। वरना कोई कमी ना होते हुये भी ससुराल मे बहू की हजार कमियाँ निकल आती हैं। जिसे अगर बहू ने मानने से इंकार कर दिया तो उसके लिए ठीक नहीं। खैर, ये तो मैं अपने मन की बात बता रही थी क्योंकि मैंने कई जगह ऐसा देखा है। पर मेरा परिवार तो इन सब मामलों से थोड़ा दूर है। 

शादी के बाद मैं जिन जगहों को टेलीविज़न मे देखती थी, वहाँ मैं घूमने गयी। वैसे तो दिल्ली मे घूमने के लिए इतनी जगहें हैं की हम इतनी आसानी से पूरी दिल्ली नहीं घूम सकते हैं। लेकिन कुछ जगहें जैसे लालकिला, राजघाट, कुतुबमीनार, लोटस मंदिर, इंडिया गेट, संसद भवन जैसी ऐतिहासिक जगहों पर अगर हम घूम ले तो ये कह सकते हैं कि हमने दिल्ली घूम ली। मैं भी इन जगहों पर घूमने गयी। पापाजी ने गाड़ी किराए पर ली और हम पूरे परिवार के साथ घूमने निकल पड़े। बहुत मजा आया था घूमते हुये और हमारा मन तो खुशी से झूम रहा था की जिन चीजों को देखने की कभी कल्पना भी नहीं की थी वो सारी जगहें हम घूम रहें है। और खाते-पीते मस्ती करती हुये हम सब इन्दिरा गांधी स्मृति भवन पहुंचे। वहाँ पर हमें ऐसी-ऐसी चीजें देखने को मिली, जिससे मेरा मन काँप उठा और बहुत दुख हुआ। वहाँ पर मैंने इंदिरा गांधी जी के वो कपड़े देखें जो उन्होने अपने ज़िंदगी के अंतिम दिन में पहन रखा था और राजीव गांधी जी के फटे-चीथड़े कपड़े जो उन्होने उस समय पहन रखे थे, जब उन्हे बम से उड़ा दिया गया था।

हमें तो तब से पहले पता भी नहीं था कि भले ही वो आज हमारे बीच नहीं है पर उनकी यादें आज भी हमारे साथ हैं, जो कभी भी किसी के दिल से नहीं मिटेंगी। वहाँ से निकलकर हम सब कतुबमीनार पहुंचे वहाँ भी हमनें वो सारी चीजे देखी जो मैनें किताबों में पढ़ी थीं आैर भी बहुत  नयी-नयी जानकारी मिली। वहाँ से घूमकर हम लालकिले के लिये निकले। वहाँ भी बहुत सी एेतिहासिक चीजे देखनें को मिली। लाल किले का मीना बाजार मुझे बहुत अच्छा लगा। मैंने वहाँ से अपने आैर अपनी बहन के लिये एक सुंदर-सा पर्स लिया। और और भाभी के बच्चों के लिये खिलौने और पेन खरीदा। उसके बाद चांदनी चौक में गोलगपपे, आइसक्रीम और हल्दीराम की रसमलाई व समोसे खाये। उस दिन हम सब इतना घूमें की घर आकर बस यही मन में था कि बस जल्दी से सो जायें।

पर फिर भी घूमने से थकान भले हो पर मजा खूब आता है। यह बिलकुल शादी के लड्डू की तरह होता है जो खाये वो पछताये जो ना खाये वो और भी ज्यादा पछताये। फ़िर एक दिन हम लोगों ने लालकिले का लाइट और साउण्ड शो देखा। वहाँ पर उसकी प्रस्तुति इतनी अच्छी की गयी थी की लग रहा था जैसे वो एक नाटक नहीं बल्कि सच में हो रहा है। वो घोड़ों के दौड़ने की आवाज, महल में नाच-गानें एकदम असली लग रहे थे। ऐसी बहुत-सी यादें हैं, जिसे मैंने अपने दिल मे बसा लिया है। जैसे कि दिल्ली मेरे दिल मे बस गयी है। कहने को तो बहुत सी बातें है पर कुछ बातें अपने तक ही रखना ज्याद सही रहता है, आगे जिससे हम एक बार फिर अपनी बातें आप तक पहुचा पाएँ कुछ नएपन के साथ। वैसे भी अभी कहने का ढंग भी सीख रही हूँ। आते-आते आ जाएगा।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2016

पानी की कहानी

जल ही जीवन है ये तो सब जानते हैं पर कोई मानता कोई नहीं है। या फिर ये कह सकते हैं कि कितने लोग जल को सहेज कर रखते हैं? पानी हमारे लिये ज़िंदगी है लेकिन फिर भी हम पानी को पानी की तरह बहा रहे हैं। मैं भी जब ऐसा कह रही हूँ तब मैं भी पानी की कीमत नहीं जान रही। उसे ऐसे ही पानी की तरह बर्बाद कर रही हूँ। फ़िर इसका मतलब तो यही है ना कि हम पानी नही बल्की हम अपनी ज़िंदगी को बरबाद कर रहे हैं। क्योंकि बिना पाने के जीवन संभव नहीं ही नहीं हो सकता है। सुबह से लेकर शाम तक हर छोटे-बङे काम के लिये हमें पानी की आवश्यकता होती है। पानी ही हमारे जीवन का पूरक है। लेकिन फिर भी आज के लोग पानी की कीमत नही समझते हैं। हमारे देश में बहुत-सी ऐसी जगह है, जहाँ पर लोग एक-एक बूँद पानी के लिए तरसते हैं। पानी के लिये वो स्त्रियाँ मीलों पैदल चलती हैं, घंटों लाइनों में लगी रहती हैं, तब जाकर उन्हें थोड़ा-सा पानी मिलता हैं, जिसकी उन्हें पूरी कीमत चुकानी पड़ती है। उनके इस दर्द भरी प्यास को हम समझ भी नही सकते हैं कि वो थोङे से पानी में अपना गुजारा कैसे करते हैं? शायद कई-कई दिनों तक ना तो वो नहाते होंगे और न ही वो कपड़े साफ-सुथरा पहन सकते हैं क्योकि उनके देश-उनके गाँव मे पानी की इतनी तंगी होती है की अगर वो चाहे भी भी तो उन्हें इतना पानी मिल ही नहीं सकता है कि वो अपनी ज़िंदगी मे पानी की कमी को पूरी कर अच्छे से गुजारा कर सकें।

लेकिन हमारे देश के जिन जगहों मे पानी पर्याप्त मात्रा में बिना किसी मोल के मिल रहा है। वहाँ के लोग पानी की कीमत को नहीं समझते हैं और वो बिना किसी रोक-टोक के पानी का व्यर्थ अपव्यय करते रहते हैं। क्योंकि उन्हें ये एहसास ही नहीं होता है कि जिस पानी को हम बिना कुछ सोचे-समझे पानी कि तरह बहाये जा रहें हैं अगर वही पानी एक दिन भी हमें नसीब न हो तो हमारी क्या हालत हो सकती है। हमारे देश मे जिन जगहों पर पानी की कोई तकलीफ नहीं है, वहाँ के लोगों के तो क्या कहने हैं? जहाँ एक ग्लास पानी मे काम बन सकता है, वहाँ वो एक बाल्टी पानी बहा देते हैं। और जहाँ उन्हें बाल्टी भर पानी की जरूरत होती है, वहाँ तो उन्हें खुद भी पता नहीं होता है कि उन्होने कितना पानी बर्बाद किया है? ये सिर्फ एक व्यक्ति नहीं बल्कि सौ में से नब्बे व्यक्ति होते होंगे, जो एक दिन में पता नहीं कितना पानी बिना किसी काम के ही बहा देते हैं। ठंड के मौसम मे लोग गरम पानी के लिए नल खुला छोड़ देते हैं कि ऊपर का पानी निकल जाएगा तो नीचे से गरम पानी आएगा और उसी से वो नहाते हैं क्योंकि ठंडें पानी से तो उन्हें ठंड लगेगी और अगर उन्हे कभी कोई रोके भी की आप इतना पानी क्यों बर्बाद कर रहे हैं? तो बदले में ये सुनने को मिलता है कि इतना पानी आ रहा तो है और क्या मेरे अकेले के पानी बचाने से पानी बच जाएगा जब बाकी सब इतना नुकसान करते हैं। क्या उन्हे इतना भी नहीं पता है कि बूंद-बूंद पानी से ही सागर भरता है और पहल तो किसी एक से ही होती है। वह आप भी हो सकते हैं और कल उसी नल के आगे इंतज़ार करते हुए रो भी सकते हैं।

पानी को बर्बाद करके सिर्फ हम हमारे देश के जलस्तर को तो घटा ही रहे हैं साथ ही साथ हमारे देश मे हमारे समाज मे हम बीमारियाँ भी बढ़ा रहें है। क्योंकि हम जिस पानी का उपयोग और अनुपयोग करते हैं वो पानी या तो किसी नाले या फिर किसी तालाब मे इकट्ठा होती हैं और नयी-नयी बीमारियों को जन्म देती हैं, जो हमारे लिए जानलेवा साबित होती हैं। इसीलिए मेरे प्यारे दोस्तों आपसे सिर्फ इतना ही कहूँगी की बिना वजह पानी का व्यर्थ अपव्यय मत करें और न ही किसी को करने दें क्योकि ऐसा न हो की जिस पानी की कीमत हम आज नहीं समझ पा रहे हैं, वही पानी हमें एक-एक बूंद के लिए तरसा दे और हमें अपने ज़िंदगी से हाथ धोना पड़े। अगर कहीं आप के सामने कोई पानी का नल खुला छोड़ रहा है या फिर बिना किसी वजह जरूरत से ज्यादा पानी खर्च कर रहा है तो आप उन्हें रोकें और ऐसा ना करने के लिए उन्हें समझाएँ क्योंकि अगर हम हमारी चीजों की रक्षा खुद नहीं करेंगे तो वो दिन दूर नहीं जब हम उस चीज के लिए बूंद-बूंद तरसेंगे। इसीलिए पानी को ना स्वयं बर्बाद करें और न ही दूसरों को करने दें।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2016

दहेज़: बेटी पैदा करने का ब्याज

हमारे समाज मे बढ़ती हुयी कुप्रथाओं में दहेज प्रथा भी एक ऐसी कुप्रथा है, जो बहुत पहले से चली आ रही है। आज के समय में इस दहेज प्रथा ने एक ऐसा भीषण रूप ले लिया है जिसे खत्म करना ना के बराबर हो गया है। दहेज एक ऐसा कीड़ा है जो बेटियों के माँ-बाप को नोच-नोच कर खाता है। आज के समय मे दहेज़ एक ऐसी आग बन गयी है, जिसमें आए दिन बहुएँ जला दी जाती हैं। बेटियों के माता-पिता लड़कियों के जन्म से ही एक एक पैसे जोड़-जोड़ के रखना शुरू कर देते हैं कि ये लड़की के ब्याह मे काम आएगा। खुद वो अपनी जरूरतें नहीं पूरी कर पाते हैं लेकिन बेटियों के ब्याह की तैयारी मे वो बेटियों के बचपन से ही लग जाते है, तब कहीं जाकर वो इतना इकट्ठा कर पाते है कि जिससे कि वो अपने बेटी को विदा कर सकें। हमारे देश मे गाँवों में बाल विवाह का एक महत्वपूर्ण कारण दहेज की मांग है। गाँवों मे जिन घरों मे एक से अधिक बेटियाँ होती है, उनके माँ बाप को बेटी की शादी की चिंता तब से ही सताने लगती है, जबसे वो थोड़ा समझने के लायक होती है। कि एक बेटी की शादी कर दें तो दूसरी की शादी के लिए दहेज की तैयारी फिर से शुरू करें और बचपन में पढ़ाई लिखाई छोड़ कर घर का चौका चूल्हा संभालना सिखाया जाने लगता है। 

जिन घरों मे बेटियाँ होतीं हैं, उनके माँ-बाप दहेज देने के लिए परेशान होते हैं लेकिन जिन घरों मे लड़के होते हैं, उनके माँ बाप बचपन से ही अपनी बेटों की कीमत तय करने लगते है कि बड़ा होकर बेटा घर मे ये दहेज लाएगा। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है वैसे वैसे माँ बाप घर मे ही बेटे की शादी में दहेज की लिस्ट बनाना मन मे ही शुरू कर देते हैं। आज के समय मे शादी नहीं होती बल्कि बेटे बेचे जाते हैं क्योंकि जिन शादयों मे लेन-देन की बात हो, दहेज लिया जाये, वो शादी शादी नहीं कहलाती। शादी तय करते समय ही बेटों के माँ-बाप अपने बच्चों के ऊपर किए गए सारे खर्चों लिस्ट थमा देते है कि 'अजी हमने अपने बेटे को इतना पढ़ाया लिखाया है..!' मतलब जो भी खर्चे उन्होने अपने बेटे पर किए हैं वो सारे वसूलने की इच्छा रखते हैं। फिर चाहे बेटियों के पिता उतना देने मे सक्षम हो या नहीं दहेज की माँग कमर पीठ सब तोड़ देती हैं। हमारे देश में दहेज की वजह से न जाने कितने ही बहुओं को आए दिन प्रताड़ित किया जाता है। आए दिन सास ससुर के ताने। प्रताड़णा। पति की मार और पता नहीं क्या-क्या? और वो भी सिर्फ दहेज के कारण। क्या बेटियों के माँ-बाप पैसे छापने की मशीन हैं या दहेज के लोभी जितनी माँग करते रहेंगे, उतना वो देते रहेंगे। क्या हमारे देश मे दहेज की प्रथा कभी खत्म नहीं होगी? क्या हमरे समाज मे बहुओं की कोई इज्जत नहीं होगी? क्या कभी हमारे देश मे हमारे समज मे दहेज के लोभियो द्वारा हमारे देश कि बेटियाँ जिंदा जलती रहेंगी? क्या कभी शादी के नाम पर की जा रही सौदेबाजी का कभी अंत नहीं होगा? क्या बेटियो का दर्द कभी खत्म नहीं होगा? शायद बेटियों को भगवान ने इतना सहनशील तभी बनाया है क्योंकि उन्हें पता होगा की हमारे समाज मे उन्हें ऐसे ही प्रताड़ित किया जाएगा। काश! हमारे देश मे दहेज प्रथा का अंत हो जाए तो कोई भी बाप अपनी बेटी को बोझ नहीं समझेगा और ना ही हमारे देश मे बेटियों का अपमान होगा और न ही उन्हे जिंदा जलाया जाएगा। कोई उन्हें इस कारण कोख में नहीं मारेगा। शायद तब हमारे देश मे बेटियाँ भी खुल कर चैन की सांस ले पाएँ, जब उन्हे उनके समाज मे वो इज्जत मिल पाये जिनकी वो हकदार हैं।

रविवार, 14 फ़रवरी 2016

लड़कियों का देश

लड़कियाँ हमारे देश का गौरव हैं। हमें लड़कियों का सम्मान करना चाहिए। कहते है, लड़कियाँ हमारे देश-हमारी पीढ़ी को आगे बढ़ाती हैं। पर सवाल है कि क्या सच में ऐसा है? आज हमारे देश मे सबसे ज्यादा असुरक्षित लड़कियाँ हैं। हर तरह से लड़कियाँ ही प्रताड़ित होती है। फिर चाहे वो बलात्कार के रूप में हो, या फिर जन्म से पहले लड़कियों को गर्भ में ही मारने के रूप में। आज हमारे समाज मे लड़कियों को जन्म से पहले ही मारना कम हो गया है लेकिन अभी भी ये जड़ से खत्म नहीं हुआ है। जिस घर में बेटा होता है, उस घर के लोग बहुत ज्यादा ही खुश हो जाते हैं कि उनके वंश को बढ़ाने वाला आ गया है, लेकिन ऐसे बहुत कम ही घर है, जहाँ बेटी के जन्म की खुशियाँ मनाई जाती हो। पर जो लोग ये सोचते है कि अगर हमारे घर में लड़का होगा तभी हमारा वंश आगे बढ़ेगा लेकिन वो ये क्यों नहीं सोचते हैं कि क्या सिर्फ लड़के के होने से ही उनका वंश आगे बढ़ेगा? सच तो ये है कि वंश लड़कों से नहीं बल्कि लड़कियों से आगे बढ़ता है। जिस घर मे बेटा होता है वहाँ तो केवल उस घर का नाम आगे बढ़ता है लेकिन जिस घर मे बेटी होती है, वहाँ तो दो घरों का वंश बढ़ता है। तभी हमारे बुजुर्गों ने कहा है कि लड़कियाँ दो कुलों को नाम रोशन करती हैं। 

लेकिन फिर भी लड़कियों को बोझ समझा जाता है। उन्हे एक अहसास, एक सम्मान की तरह नहीं बल्कि एक ज़िम्मेदारी के रूप मे लिया जाता है। कि जितनी जल्दी हम लड़की की शादी कर दें उतनी जल्दी ही हमारे सर का बोझ कम हो। आज के समय में लड़कियाँ लड़कों से किसी भी चीज मे भी कम नहीं है। कोई ऐसा काम नहीं है जो लड़कियां न कर सकें। लेकिन फिर भी हमारे समाज मे वो सुरक्षित नहीं हैं। आए दिन अखबारों में सबसे ज्यादा यही न्यूज़ रहती है कि आज इस लड़की के साथ बलात्कार हुआ कल किसी और लड़की के साथ। क्या हमारे समाज मे लड़कियों का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या वो अपने ही घर में, अपने ही गाँव, अपने ही शहर मे बिना किसी डर के नहीं रह सकतीं? क्या उन्हे समाज मे खुल के जीने का हक़ नहीं है? आज हमारे समाज मे बलात्कार इतना बढ़ गया है कि हवस के दरिंदे छोटी-छोटी बच्चियों को भी नहीं छोडते हैं। क्या उन्हे उनके परिवार वालों ने लड़कियों का सम्मान करना उन्हे नहीं सिखाया है? क्या उनके घर मे लड़कियाँ नहीं होती है? क्या उन्हें ऐसा करते हुये ज़रा-सी भी शरम नहीं आती है? क्या उनकी इंसानियत मर गयी है? कहीं ऐसा ना हो कि इस बढ़ती हुयी गंदगी से लोग बेटियों को जन्म देना ही ना बंद कर दें? अगर आज हमारे देश मे लड़कियाँ असुरक्षित हैं तो उसका एक महत्वपूर्ण कारण कहीं-न-कहीं हम भी हैं कि हमने हमारे बेटों को अच्छे संस्कार नहीं दिये। क्योंकि ऐसे हैवान कहीं बाहर के देश से नहीं आते हैं बल्कि हमारे ही देश में जन्मे हमारे ही समाज मे पले-बड़े हमारे ही आस-पास के लोग होते हैं, जो अपने हैवानियत से हमारे देश हमारे समाज को गंदा कर रहे हैं। ऐसे हैवानों को तो कैद की सजा नहीं बल्कि ऐसी सजा देनी चाहिए की फिर कभी वो ऐसी हैवानियत करने के लायक ही न बचे। ऐसे हवस के भूखों को तो नपुंसक बना देना चाहिए और ऐसी सजा देनी चाहिए की उनकी रूह भी काँप जाए और कोई भी हैवान ऐसा करने का कभी सोचे भी न।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

बीमार देश का हाल

हमारे समाज में डॉक्टर को भगवान माना गया है पर क्या आज के जमाने मे डॉक्टर अपनी भूमिका को अच्छी तरह निभा भी रहे हैं? हमारे देश में जिला अस्पताल तो हर शहर में हैं लेकिन फिर भी आज कल लोग सरकारी अस्पतालों से ज्यादा निजी अस्पतालों में जाना पसंद करते हैं। इसका कोई तो कारण होगा ही। मुझे लगता है की इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण लोगों का सरकारी अस्पतालों पर से विश्वास उठ गया है। आज हमारे देश की सरकारें अस्पतालों में स्वास्थ्य संबंधी हर महत्वपूर्ण कोशिश कर रही है लेकिन फिर भी सरकारी अस्पतालों में वही लोग जाते हैं, जिनको जाना अतिआवश्यक होता है या फिर जो इतने सक्षम नहीं है कि निजी अस्पतालों का खर्चा उठा सके।

आज हमारे देश में मरीजों के इलाज को सेवा नहीं बल्कि एक पेशे, एक व्यवसाय की तरह जाना जा रहा है। आजकल सरकारी डाक्टर सरकार से तनख्वाह ले ही रहे हैं, उसके बावजूद उन्होंने अपना क्लीनिक भी खोल रखा है। अस्पताल में अस्पताल के समय से आओ और अगर अच्छे से, इतमीनान से दिखाना है तो इस टाइम पर हमारे निजी क्लीनिक मे आकर मिलो। अब आप ही बताइये, अगर मरीजों को इस तरह की सुविधा दी जाएगी तो वो सरकारी अस्पतालो मे क्यों जाएंगे? बड़े शहरों के अस्पताल तो फिर भी कुछ हद तक ठीक है, वहाँ पर हर तरह की व्यवस्था की गयी है। बड़ी-बड़ी मशीने अच्छे डाक्टर। लेकिन गाँवों के सरकारी अस्पताल की हालत बहुत खराब है। कुछ तो बस नाम के हैं। न तो वहाँ मतलब भर के डाक्टर हैं, न ही स्वास्थ्य संबंधी संसाधनो की उचित व्यवस्था।

कहने को तो बहुत डाक्टर हैं पर वो समय से ही आते है, उनका अपना टाइम है। डॉक्टर तो अपनी ड्यूटी पर ही आएंगे, बाकी का काम नर्स ही देख लेती हैं। देखना उनकी मजबूरी है क्योंकि डाक्टर तो दूसरे शहरों में अपने बनाए अस्पतालों मे चले जाते हैं। उनके हफ़्ते का सातवाँ दिन हर हफ़्ते ऐसे ही होता है। हमारे यहाँ हफ्ते में छ: दिन तो सरकारी डाक्टर भी मिल जाएंगे और निजी डाक्टर भी, लेकिन हफ्ते में रविवार के दिन डाक्टरों की तंगी हो जाती है क्योकि हर रविवार बंदी रहती है। तो क्या हमारे देश मे लोग रविवार को बीमार नहीं पड़ते हैं? अगर रविवार के दिन कोई बंदा बीमार पड़ जाए तो उसे मेडिकल की दुकानों से दवा लेकर ही अपना कम चलाना पड़ता है। अगर समस्या जटिल है तो पूरे शहर के चक्कर लगाने पर कुछ एक ही निजी डाक्टर मिलेंगे, वरना वो भी नहीं। आए दिन डाक्टर वेतन ना मिलने या अपनी और स्वास्थ्य संबंधी माँगों की वजह से काम बंद करके हड़ताल पर चले जाते हैं। क्या उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता है की उनके काम बंद करने से मरीजों का इलाज न करने से मरीजों को कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उनकी जान भी जा सकती है। पर इससे उन्हें ज्यादा फरक नहीं पड़ता है, उन्हें तो हड़ताल जारी रखनी है। पर क्या उनकी मांगें किसी के जान से ज्यादा जरूरी है?

वेतन एक बार थोड़ी देर मे मिला तो ज्यादा फरक नहीं पड़ेगा लेकिन अगर किसी मरीज के इलाज मे थोड़ी सी भी देरी हो गयी तो फिर उसे बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। लेकिन हमारी माँगें पूरी होने के बाद क्या हम उस व्यक्ति को वापस ला सकते है, जिसकी जान हमारे काम बंद करने की वजह से गयी है? हम डाक्टर को तो भगवान मानते है क्योंकि जब एक बार हमारी जिंदगी खतरे मे पड़ जाती है, तो डाक्टर ही है जो अपने कठिन परिश्रम से हमें दूसरा जीवनदान देते है। गाँवों में जब कोई बीमार पड़ता है तो उसे सबसे पहले ये चिंता सताती है की वो अपने मरीज को प्राथमिक अस्पताल तक कैसे पहुँचाए, जो उसके गाँव मे नहीं बल्कि दूसरे गाँव में या आस-पास के शहर में है। जिसमें ऐसे बहुत से मरीज सही समय पर उचित इलाज न मिलने की वजह से दम तोड़ देते हैं।

इसीलिए अच्छे डाक्टरों की जरूरत सिर्फ शहरों मे ही नहीं बल्कि गाँवों मे भी है क्योंकि हमें पूरे भारत को स्वस्थ बनाना है न की सिर्फ़ शहरों को। आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से गाँव है, जहाँ कोई प्राथमिक चिकित्सालय भी नहीं है। क्या हमें वहाँ डाक्टरों की जरूरत नहीं है? क्या वहाँ के लोग बीमार नहीं पड़ते हैं? गाँवों में या छोटे कस्बों मे अगर बीमारी थोड़ी-सी भी सीरियस है तो उसे तुरंत बड़े शहरों मे भेज दिया जाता है और ये कह दिया जाता है कि 'जी ये तो हमारे बस की बात नहीं है, इसे तो बड़े शहर ले जाना पड़ेगा..!!' ऐसा कहकर उन्हें बड़े शहर भेज दिया जाता है। जिसमें वो ही मरीज जो ज्यादा भाग्यशाली होते हैं जो बड़े शहरों तक पहुँच पाते हैं। वरना वह बेचारे तो रास्ते में ही बिना इलाज के दम तोड़ देते हैं। क्या गाँव के लोगों की जान इतनी सस्ती है? जिस तरह हमारे बड़े शहरों मे ट्रेंड डाक्टर हैं तो ठीक उसी तरह छोटे शहरों में ट्रेंड डाक्टरों की व्यवस्था होनी चाहिए। छोटे-छोटे गांवों में भी प्राथमिक चिकित्सालय होने चाहिए। ये जरूरी नहीं की चिकित्सालय के लिए बड़ी बिल्डिंग होनी चाहिए। चिकित्सालय तो एक छोटे से कमरे भी बन सकता है क्योंकि चिकित्सालय में जगह से ज़्यादा अच्छे डाक्टर और अच्छे उपकरण की जरूरत होती है।

काश! हमारे देश के हर गाँव हर कस्बे मे चिकित्सालय हो जिससे हर व्यक्ति को चाहे वो गाँव का हो या शहर का उसे उचित समय पर उचित इलाज मिल सके और हर व्यक्ति स्वस्थ बन सके।

बुधवार, 10 फ़रवरी 2016

नशे का नशा

नशाखोरी हमारे समाज की सबसे जटिल बीमारी है, जिसे देखो वह नशे मे लिप्त है। फिर चाहे वो वो अमीर हो या गरीब। फरक बस इतना है की गरीब सस्ता नशा करता है और अमीर महँगा नशा। हमारे समाज मे ज़्यादातर बीमारियाँ नशा करने की वजह से होती है। लोग ये सोचते है की हम जितना महंगा नशा करेंगे, हमारी पोजीशन समाज मे उतनी ही बढ़ेगी। पर उन्हे कोई कैसे समझाये की महंगा नशा करने से समाज मे हमारी पोजीशन नहीं बल्कि बीमारियाँ बढ़ रही है। आए दिन नयी नयी बीमारियों के नाम सुनने को मिलते हैं, उसका सिर्फ और सिर्फ एक ही कारण है, हमारे देश मे बढ़ती नाशखोरी ।

गाँवों मे अधिकतर घरों मे चाहे उनकी माली हालत ठीक ना हो, घर मे पेट भरने को पैसे ना हो लेकिन वो नशा करने के लिए पैसों की व्यवस्था कहीं-न-कहीं से कर ही लेते हैं। फिर चाहे उन्हे अपने घर के गहने बेचने पड़ें या फिर जमीन। पर वो करें भी तो क्या करें? क्योंकि उनको उस चीज की लत जो लग गयी है। वो चाह कर भी इन सब से नहीं निकल पाते है क्योंकि कहते हैं न की अच्छी आदतें जितनी आसानी से लग जाती हैं, बुरी आदतों को छोडना उतना ही मुश्किल होता है।

सरकार बाकी चीजों के लिए तो पहल करती है पर हमारे समाज मे नाशखोरी जैसी भयानक बीमारी के लिए कोई सजग कदम नहीं उठा पा रही है। एक तरफ तो सरकार नशीली चीजों पर रोक लगा रही है और दूसरी तरफ उन्ही के सरकारी अड्डे खुलवाती है। इसका मतलब क्या ये है कि जो लोग अपनी दुकाने खोल कर बैठे हैं, केवल उन्ही की दुकाने बंद करवाने से समाज मे बीमारी कम हो जाएगी और जो लोग सरकारी लाइसेन्स लेकर दुकाने चलाते हैं, उनकी नशीली चीजों मे रोगप्रतिरोधक क्षमता होती है। आए दिन छोटी-छोटी दुकानों मे छापेमारी कर के  बाजार से पुलिस सैंपल लेकर उनपर जुर्माना या केस कर देगी तो क्या नशाखोरी बंद हो जाएगी? ऐसा नहीं है। एक तरफ ये दुकानों से नशीली चीजों का सैंपल लेकर उनसे जुर्माना लेते है और दूसरी तरफ इन चीजों के उत्पादनकर्ताओ से भी टैक्स लेते हैं। ये कैसे सही है? क्या इस तरह से हमारे देश मे नशाखोरी ख़त्म होगी ?

सरकार को इन चीजों को खत्म उन जगहों से करना चाहिए जहाँ पर इन चीजों का निर्माण होता है। तभी हमारे देश मे नशाखोरी कुछ हद तक कम हो सकती है। क्योकि अगर इन चीजों का उत्पादन ही नहीं होगा तो बिक्री नहीं होगी। और अगर बिक्री नहीं होगी तो लोग चाह कर भी इसका सेवन नहीं कर सकेंगे। इस तरह सरकार को छोटे दूकानदारों की दुकानों से सेंपल उठाने की जगह, उन जगहों से संपले लेना चाहिए, जहाँ से इनकी शुरुवात होती है। क्योंकि कहते है न की अगर बीज ही नहीं होगा तो पेड़ कैसे उगेंगे। उसी तरह अगर हमारे देश में नशीली चीजें ही नहीं होंगी तो लोग नशा कैसे करेंगे। जिस तरह से मैगी मे सीसा(लेड) होने की आशंका से मैगी पर बैन कर दिया गया था, उसी तरह हमारे देश से नशीली चीजों की हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी चीजों को प्रतिबंधित कर देना चाहिए। तभी हमारे देश की स्थिती कुछ हद तक सुधर सकती है। इस तरह हमारे देश मे न तो नशीली चीजें होंगी और न ही नशाखोरी और बीमारियाँ तो हमारे आस पास भी नहीं आ पाएँगी।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

सपनों का गाँव

कल रात जबसे मैं इस ब्लॉग से जुड़ी हूँ, तभी से मेरे मन मे बहुत कुछ चल रहा है कि क्या लिखूँ। मैं एक छोटे से कस्बे की रहने वाली हूँ, जिसे हम गाँव भी कह सकते हैं। बचपन से ही मेरी रुचि पढ़ाई और खेल मे ज्यादा थी। पर जैसा की हम सभी जानते हैं कि गाँव में शिक्षा का कितना अभाव है। आज भी ज़्यादातर गाँव में विद्यालय तो है लेकिन महाविद्यालय नहीं हैं, जिससे बच्चों का भविष्य आज भी नहीं बन पा रहा है। ज़्यादातर गाँव मे आठवीं या बारहवीं से आगे शिक्षा का कोई साधन उपलब्ध नहीं है, जिससे चाहते हुये भी लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा मुहैया नहीं करा पाते हैं और उनकी शिक्षा अधूरी ही रह जाती है। और अगर आसपास के शहरों में महाविद्यालय हैं भी तो माँ-बाप समाज के डर से या फिर या अपने बच्चों को असुरक्षित समझ के घर से दूर पढ़ने के लिए नहीं भेजते हैं और वो बारहवीं तक ही सिमट के रह जाते हैं और चाहकर भी स्नातक तक की भी शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते हैं।

आज भी हमारे समाज में ऐसे बहुत से पिछड़े इलाके है, जहाँ आज भी लोग शिक्षा से बहुत दूर है। जिसे शिक्षा के बारे पता तो है लेकिन वो उसे जरूरी नहीं समझते है या फिर असुरक्षा के डर से शिक्षा ग्रहण करने के लिए स्कूल नहीं भेजते हैं। हमारे समाज में आए दिन अखबारों में ज़्यादातर खबरें लड़कियो की असुरक्षा को लेकर ही होती हैं। आज गाँव से ज्यादा शहरों मे लड़कियाँ सुरक्षित नहीं हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार इनके लिए कोई मजबूत कदम नहीं उठा रही है पर फिर भी कहीं न कहीं कुछ तो ऐसा है, जिससे आज भी हमारे देश मे लड़कियाँ सुरक्षित नहीं है। इस वजह से ज़्यादातर बलिदान लड़कियों को ही देना पड़ता है और फिर या तो उनको घर के कामों में लगा दिया जाता है या फिर उन्हें अधूरी शिक्षा के साथ शादी के बंधन मे बाँध दिया जाता है। 

आज भी ऐसे बहुत से गाँव है, जहाँ एक भी स्कूल नहीं है, सबसे पहले सरकार को वहाँ स्कूलो की व्यवस्था करवानी चाहिए। सरकार स्कूल तो खुलवा रही है पर वहाँ जहाँ पहले से ही स्कूल है। और जहाँ स्कूल हैं, वहाँ तो हमें शिक्षा को बढ़ावा देना ही है पर हम ये क्यूँ भूल जाते हैं कि हमें सिर्फ कुछ गाँवों को नहीं बल्कि हर एक छोटी से छोटी जगह को भी शिक्षित करना है, तभी हमारा देश तरक्की के रास्ते पर चलना शुरू करेगा। जिन गाँवों में प्राथमिक विद्यालय हैं भी उनकी हालत इतनी जर्जर है कि बस वो नाम के स्कूल रह गए है न तो वह पढ़ने के साधन है और ना ही पढ़ने के लिए उपयुक्त शिक्षक। हमारा देश इतना तरक्की पर होने बावजूद भी गाँवों को पिछड़ेपन से नहीं निकाल पा रहा है, इसका जिम्मेदार सिर्फ हमारी सरकार व्यवस्था ही नहीं है बल्कि इसके सबसे बड़े जिम्मेदार हम खुद है। क्योंकि सरकार हर गाँव हर शहर तक तो नहीं पहुँच सकती है। 

सरकार से ज्यादा हम लोगों के करीब हैं। जो लोग शिक्षा के महत्व को नहीं समझते या फिर समझते हुये भी समझना नहीं चाहते हैं तो हमारा ये कर्तव्य बनता है कि हम लोगो को समझाये। अगर फिर भी ना समझें तो हमें उन्हे उनके जीवन में अशिक्षा जैसी सबसे बड़ी कमी का एहसास दिलवाना चाहिए। क्योंकि अगर हम अपने देश अपने समाज के प्रति जागरूक हैं, तभी हमारा देश भी हमारे प्रति जागरूक कदम उठाएगा। अगर हम देश को उन्नति के रास्ते तक ले जायेंगे तो हमारा देश हमें हमारी मंजिल तक पहुँचाएगा। और ये तभी संभव है, जब हमारा देश पूर्ण रूप से शिक्षित होगा क्योंकि पढ़ेगा इंडिया तभी तो बढ़ेगा इंडिया।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

दिन पहला

हैलो फ्रैंड्स,
       आज मेरा इस ब्लॉग पर पहला दिन है। इसीलिए मुझे समझ मे नहीं आ रहा है । इससे पहले मैंने कभी ब्लॉग या फिर अपनी कुछ पर्सनल डायरी भी नहीं लिखी है । मेरे पति की ये दिली तमन्ना थी की मैं भी कभी ब्लॉग पर कुछ लिखूँ पर मैं हर बार मना कर रही थी कि मैं क्या लिखूँ, मैं उनकी तरह सोच ही नहीं पाती, पर फिर भी कोशिश करूंगी कि अपने बारे मे या अपने से जुड़ीं बातें आपसे भी शेयर करूँ इसीलिए मैंने इस ब्लॉग का नाम भी 'हमारी तुम्हारी बातें' रखा है।

फ़िर यह ज़रूरी भी तो नहीं कि हम सबसे पहले अपने बारे में बताते हुए शुरू करें। ज़रूरी है, बातों का होना। एक सिलसिला बनता जाएगा और हम जब उन बातों के जरिये इस दुनिया में पहचाने जाने लायक हो जाएंगे, तब शायद इस सवाल की ज़रूरत भी महसूस न हो। ज़रूरत का होना हमें नहीं बनाता,हमें हम खुद बनाते हैं.. आगे क्या कहूँ समझ नहीं पा रही। जितना पढ़ लिख लेती हूँ उससे जादा कहीं अब सोचने में वक़्त बीत जाता है।

मैं सच कहूँ तो अपने बारे में किसी तरह कि ऐसी बात नहीं बताना चाहती जिससे आपके मन में एक छवि पहले से बन जाये और मेरी पूरी ताकत फ़िर से गढ़ने या तोड़ने में लग जाये। ख़ैर अब चलती हूँ। जल्दी मिलेंगे। यहीं। इसी पते पर। अब जा रही हूँ, पहले थोड़ा इस जाती ठंड में छत पर घुमूंगी। फ़िर सो जाऊँगी।

- हिमांशी शचीन्द्र आर्य