हमारे समाज में डॉक्टर को भगवान माना गया है पर क्या आज के जमाने मे डॉक्टर अपनी भूमिका को अच्छी तरह निभा भी रहे हैं? हमारे देश में जिला अस्पताल तो हर शहर में हैं लेकिन फिर भी आज कल लोग सरकारी अस्पतालों से ज्यादा निजी अस्पतालों में जाना पसंद करते हैं। इसका कोई तो कारण होगा ही। मुझे लगता है की इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण लोगों का सरकारी अस्पतालों पर से विश्वास उठ गया है। आज हमारे देश की सरकारें अस्पतालों में स्वास्थ्य संबंधी हर महत्वपूर्ण कोशिश कर रही है लेकिन फिर भी सरकारी अस्पतालों में वही लोग जाते हैं, जिनको जाना अतिआवश्यक होता है या फिर जो इतने सक्षम नहीं है कि निजी अस्पतालों का खर्चा उठा सके।
आज हमारे देश में मरीजों के इलाज को सेवा नहीं बल्कि एक पेशे, एक व्यवसाय की तरह जाना जा रहा है। आजकल सरकारी डाक्टर सरकार से तनख्वाह ले ही रहे हैं, उसके बावजूद उन्होंने अपना क्लीनिक भी खोल रखा है। अस्पताल में अस्पताल के समय से आओ और अगर अच्छे से, इतमीनान से दिखाना है तो इस टाइम पर हमारे निजी क्लीनिक मे आकर मिलो। अब आप ही बताइये, अगर मरीजों को इस तरह की सुविधा दी जाएगी तो वो सरकारी अस्पतालो मे क्यों जाएंगे? बड़े शहरों के अस्पताल तो फिर भी कुछ हद तक ठीक है, वहाँ पर हर तरह की व्यवस्था की गयी है। बड़ी-बड़ी मशीने अच्छे डाक्टर। लेकिन गाँवों के सरकारी अस्पताल की हालत बहुत खराब है। कुछ तो बस नाम के हैं। न तो वहाँ मतलब भर के डाक्टर हैं, न ही स्वास्थ्य संबंधी संसाधनो की उचित व्यवस्था।
कहने को तो बहुत डाक्टर हैं पर वो समय से ही आते है, उनका अपना टाइम है। डॉक्टर तो अपनी ड्यूटी पर ही आएंगे, बाकी का काम नर्स ही देख लेती हैं। देखना उनकी मजबूरी है क्योंकि डाक्टर तो दूसरे शहरों में अपने बनाए अस्पतालों मे चले जाते हैं। उनके हफ़्ते का सातवाँ दिन हर हफ़्ते ऐसे ही होता है। हमारे यहाँ हफ्ते में छ: दिन तो सरकारी डाक्टर भी मिल जाएंगे और निजी डाक्टर भी, लेकिन हफ्ते में रविवार के दिन डाक्टरों की तंगी हो जाती है क्योकि हर रविवार बंदी रहती है। तो क्या हमारे देश मे लोग रविवार को बीमार नहीं पड़ते हैं? अगर रविवार के दिन कोई बंदा बीमार पड़ जाए तो उसे मेडिकल की दुकानों से दवा लेकर ही अपना कम चलाना पड़ता है। अगर समस्या जटिल है तो पूरे शहर के चक्कर लगाने पर कुछ एक ही निजी डाक्टर मिलेंगे, वरना वो भी नहीं। आए दिन डाक्टर वेतन ना मिलने या अपनी और स्वास्थ्य संबंधी माँगों की वजह से काम बंद करके हड़ताल पर चले जाते हैं। क्या उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता है की उनके काम बंद करने से मरीजों का इलाज न करने से मरीजों को कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उनकी जान भी जा सकती है। पर इससे उन्हें ज्यादा फरक नहीं पड़ता है, उन्हें तो हड़ताल जारी रखनी है। पर क्या उनकी मांगें किसी के जान से ज्यादा जरूरी है?
वेतन एक बार थोड़ी देर मे मिला तो ज्यादा फरक नहीं पड़ेगा लेकिन अगर किसी मरीज के इलाज मे थोड़ी सी भी देरी हो गयी तो फिर उसे बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। लेकिन हमारी माँगें पूरी होने के बाद क्या हम उस व्यक्ति को वापस ला सकते है, जिसकी जान हमारे काम बंद करने की वजह से गयी है? हम डाक्टर को तो भगवान मानते है क्योंकि जब एक बार हमारी जिंदगी खतरे मे पड़ जाती है, तो डाक्टर ही है जो अपने कठिन परिश्रम से हमें दूसरा जीवनदान देते है। गाँवों में जब कोई बीमार पड़ता है तो उसे सबसे पहले ये चिंता सताती है की वो अपने मरीज को प्राथमिक अस्पताल तक कैसे पहुँचाए, जो उसके गाँव मे नहीं बल्कि दूसरे गाँव में या आस-पास के शहर में है। जिसमें ऐसे बहुत से मरीज सही समय पर उचित इलाज न मिलने की वजह से दम तोड़ देते हैं।
इसीलिए अच्छे डाक्टरों की जरूरत सिर्फ शहरों मे ही नहीं बल्कि गाँवों मे भी है क्योंकि हमें पूरे भारत को स्वस्थ बनाना है न की सिर्फ़ शहरों को। आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से गाँव है, जहाँ कोई प्राथमिक चिकित्सालय भी नहीं है। क्या हमें वहाँ डाक्टरों की जरूरत नहीं है? क्या वहाँ के लोग बीमार नहीं पड़ते हैं? गाँवों में या छोटे कस्बों मे अगर बीमारी थोड़ी-सी भी सीरियस है तो उसे तुरंत बड़े शहरों मे भेज दिया जाता है और ये कह दिया जाता है कि 'जी ये तो हमारे बस की बात नहीं है, इसे तो बड़े शहर ले जाना पड़ेगा..!!' ऐसा कहकर उन्हें बड़े शहर भेज दिया जाता है। जिसमें वो ही मरीज जो ज्यादा भाग्यशाली होते हैं जो बड़े शहरों तक पहुँच पाते हैं। वरना वह बेचारे तो रास्ते में ही बिना इलाज के दम तोड़ देते हैं। क्या गाँव के लोगों की जान इतनी सस्ती है? जिस तरह हमारे बड़े शहरों मे ट्रेंड डाक्टर हैं तो ठीक उसी तरह छोटे शहरों में ट्रेंड डाक्टरों की व्यवस्था होनी चाहिए। छोटे-छोटे गांवों में भी प्राथमिक चिकित्सालय होने चाहिए। ये जरूरी नहीं की चिकित्सालय के लिए बड़ी बिल्डिंग होनी चाहिए। चिकित्सालय तो एक छोटे से कमरे भी बन सकता है क्योंकि चिकित्सालय में जगह से ज़्यादा अच्छे डाक्टर और अच्छे उपकरण की जरूरत होती है।
काश! हमारे देश के हर गाँव हर कस्बे मे चिकित्सालय हो जिससे हर व्यक्ति को चाहे वो गाँव का हो या शहर का उसे उचित समय पर उचित इलाज मिल सके और हर व्यक्ति स्वस्थ बन सके।
आज हमारे देश में मरीजों के इलाज को सेवा नहीं बल्कि एक पेशे, एक व्यवसाय की तरह जाना जा रहा है। आजकल सरकारी डाक्टर सरकार से तनख्वाह ले ही रहे हैं, उसके बावजूद उन्होंने अपना क्लीनिक भी खोल रखा है। अस्पताल में अस्पताल के समय से आओ और अगर अच्छे से, इतमीनान से दिखाना है तो इस टाइम पर हमारे निजी क्लीनिक मे आकर मिलो। अब आप ही बताइये, अगर मरीजों को इस तरह की सुविधा दी जाएगी तो वो सरकारी अस्पतालो मे क्यों जाएंगे? बड़े शहरों के अस्पताल तो फिर भी कुछ हद तक ठीक है, वहाँ पर हर तरह की व्यवस्था की गयी है। बड़ी-बड़ी मशीने अच्छे डाक्टर। लेकिन गाँवों के सरकारी अस्पताल की हालत बहुत खराब है। कुछ तो बस नाम के हैं। न तो वहाँ मतलब भर के डाक्टर हैं, न ही स्वास्थ्य संबंधी संसाधनो की उचित व्यवस्था।
कहने को तो बहुत डाक्टर हैं पर वो समय से ही आते है, उनका अपना टाइम है। डॉक्टर तो अपनी ड्यूटी पर ही आएंगे, बाकी का काम नर्स ही देख लेती हैं। देखना उनकी मजबूरी है क्योंकि डाक्टर तो दूसरे शहरों में अपने बनाए अस्पतालों मे चले जाते हैं। उनके हफ़्ते का सातवाँ दिन हर हफ़्ते ऐसे ही होता है। हमारे यहाँ हफ्ते में छ: दिन तो सरकारी डाक्टर भी मिल जाएंगे और निजी डाक्टर भी, लेकिन हफ्ते में रविवार के दिन डाक्टरों की तंगी हो जाती है क्योकि हर रविवार बंदी रहती है। तो क्या हमारे देश मे लोग रविवार को बीमार नहीं पड़ते हैं? अगर रविवार के दिन कोई बंदा बीमार पड़ जाए तो उसे मेडिकल की दुकानों से दवा लेकर ही अपना कम चलाना पड़ता है। अगर समस्या जटिल है तो पूरे शहर के चक्कर लगाने पर कुछ एक ही निजी डाक्टर मिलेंगे, वरना वो भी नहीं। आए दिन डाक्टर वेतन ना मिलने या अपनी और स्वास्थ्य संबंधी माँगों की वजह से काम बंद करके हड़ताल पर चले जाते हैं। क्या उन्हें इस बात का अहसास नहीं होता है की उनके काम बंद करने से मरीजों का इलाज न करने से मरीजों को कितनी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है। उनकी जान भी जा सकती है। पर इससे उन्हें ज्यादा फरक नहीं पड़ता है, उन्हें तो हड़ताल जारी रखनी है। पर क्या उनकी मांगें किसी के जान से ज्यादा जरूरी है?
वेतन एक बार थोड़ी देर मे मिला तो ज्यादा फरक नहीं पड़ेगा लेकिन अगर किसी मरीज के इलाज मे थोड़ी सी भी देरी हो गयी तो फिर उसे बचाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। लेकिन हमारी माँगें पूरी होने के बाद क्या हम उस व्यक्ति को वापस ला सकते है, जिसकी जान हमारे काम बंद करने की वजह से गयी है? हम डाक्टर को तो भगवान मानते है क्योंकि जब एक बार हमारी जिंदगी खतरे मे पड़ जाती है, तो डाक्टर ही है जो अपने कठिन परिश्रम से हमें दूसरा जीवनदान देते है। गाँवों में जब कोई बीमार पड़ता है तो उसे सबसे पहले ये चिंता सताती है की वो अपने मरीज को प्राथमिक अस्पताल तक कैसे पहुँचाए, जो उसके गाँव मे नहीं बल्कि दूसरे गाँव में या आस-पास के शहर में है। जिसमें ऐसे बहुत से मरीज सही समय पर उचित इलाज न मिलने की वजह से दम तोड़ देते हैं।
इसीलिए अच्छे डाक्टरों की जरूरत सिर्फ शहरों मे ही नहीं बल्कि गाँवों मे भी है क्योंकि हमें पूरे भारत को स्वस्थ बनाना है न की सिर्फ़ शहरों को। आज भी हमारे देश में ऐसे बहुत से गाँव है, जहाँ कोई प्राथमिक चिकित्सालय भी नहीं है। क्या हमें वहाँ डाक्टरों की जरूरत नहीं है? क्या वहाँ के लोग बीमार नहीं पड़ते हैं? गाँवों में या छोटे कस्बों मे अगर बीमारी थोड़ी-सी भी सीरियस है तो उसे तुरंत बड़े शहरों मे भेज दिया जाता है और ये कह दिया जाता है कि 'जी ये तो हमारे बस की बात नहीं है, इसे तो बड़े शहर ले जाना पड़ेगा..!!' ऐसा कहकर उन्हें बड़े शहर भेज दिया जाता है। जिसमें वो ही मरीज जो ज्यादा भाग्यशाली होते हैं जो बड़े शहरों तक पहुँच पाते हैं। वरना वह बेचारे तो रास्ते में ही बिना इलाज के दम तोड़ देते हैं। क्या गाँव के लोगों की जान इतनी सस्ती है? जिस तरह हमारे बड़े शहरों मे ट्रेंड डाक्टर हैं तो ठीक उसी तरह छोटे शहरों में ट्रेंड डाक्टरों की व्यवस्था होनी चाहिए। छोटे-छोटे गांवों में भी प्राथमिक चिकित्सालय होने चाहिए। ये जरूरी नहीं की चिकित्सालय के लिए बड़ी बिल्डिंग होनी चाहिए। चिकित्सालय तो एक छोटे से कमरे भी बन सकता है क्योंकि चिकित्सालय में जगह से ज़्यादा अच्छे डाक्टर और अच्छे उपकरण की जरूरत होती है।
काश! हमारे देश के हर गाँव हर कस्बे मे चिकित्सालय हो जिससे हर व्यक्ति को चाहे वो गाँव का हो या शहर का उसे उचित समय पर उचित इलाज मिल सके और हर व्यक्ति स्वस्थ बन सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें